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रविवार, 29 अगस्त 2021

अपनी बोलियों के लिए 2

अगस्त 29, 2021 0

दिव्‍य हिमाचल में प्रकाशित लेख

दूसरा व अंतिम हिस्‍सा  प्रकाशन दिनांक  8 अगस्‍त 2021 







 इसी तरह अंग्रेजी हम छोड़ नहीं सकते हैं और अपनी मांबोलियों का क्‍या किया जाए समझ नहीं आता है। हमारा शिक्षा-कारोबार सारा कार्य व्‍यापार सब अंग्रेजी में चलता आ रहा है। साल में एक दिन भाषा दिवस मना कर लेखकों आदि को पुरस्‍कार पकड़ा दिया जाता है। अपनी भाषा का झंडा उठा कर जय बोल दी, मेरी मां महान है का नारा लगा दिया। हो गया। उस बहू का तो पता नहीं पर अंग्रेजी सब भारतीय भाषाओं के गले घोंट रही है पर किसी को कोई शिकायत नहीं है। उसे सब खून माफ हैं।

इस मामले में हमारी स्थिति डाल पर बैठ डाल को काटने वाले शेखचिल्‍ली से भी बुरी है। हम अपनी भाषाओं के पेड़ों की जड़ों को काटे भी जा रहे हैं और उसके फलने-फूलने की उम्‍मीद भी कर रहे हैं। हम अपने बच्‍चों को अंग्रेजी में पढ़ाएंगे और उनका अंग्रेजी का मुहावरा न बिगड़ जाए इसलिए उनसे अंग्रेजी में ही बोलेंगे और चाहते हैं कि भारतीय भाषाओं का विकास हो। इस भोलेपन पर सौ दो सौ की क्‍या बात है, लाखों जुबानें कुरबान हो सकती हैं। इस मामले में साहित्‍यकारों से बात करो तो वे कहते हैं, भाषा उनका नहीं समाज का विषय है  क्‍योंकि उनकी संतानें भी तो अंग्रेजी माध्‍यम के स्‍कूलों में ही पढ़ रही हैं।          

ऐसे में नई शिक्षा नीति के मसौदे का यह प्रस्‍ताव कि पांचवीं तक मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाएगी। इस तपते रेगीस्‍तान में एक नख‍लिस्‍तान की तरह नजर आ रहा है। यह प्रस्‍ताव यदि लागू हो गया तो इससे देश की भाषाओं को एक नया जीवन मिल सकता है। परंतु अंग्रेजी और अंग्रेजी शिक्षा के साथ बहुत से लोगों के स्‍वार्थ जुडें हैं और अंग्रेजीदां मध्‍य वर्ग ऐसा होने नहीं देगा।

वैसे भी भाषाओं के मामले में सरकारों से बहुत ज्‍यादा उम्‍मीद करना बेमानी है। उन पर इतने दवाब हैं कि उनके लिए एक स्‍पष्‍ट भाषा नीति बनाना संभव ही नहीं है। ऐसे में हमें ही अपनी भाषा नीति बनानी होगी। हम सब जानते हैं कि आज के समय में हमारा किसी एक भाषा से काम नहीं चल सकता है। हमें अढ़ाई भाषाओं का ज्ञान तो होना ही चाहिए। एक मातृ भाषा, हिंदी/अंग्रेजी में से एक पूरी, एक आधी। यह एक व्‍यावहारिक जीवन जीने की कम से कम भाषाई जरुरत है। जिन्‍हें अपने ही क्षेत्र में जीवन बिताना हो, वे क्षेत्र की जरुरत के अनुसार हिंदी या अंग्रेजी किसी एक के बिना भी काम चला सकते हैं।

यदि हम अपनी-अपनी मां बोली/भाषाओं को प्‍यार करते हैं तो हमें ही यह तय करना होगा कि हम अंग्रेजी या हिंदी किसी भी भाषा के लिए अपनी मातृ बोली/भाषा नहीं छोड़ेगे। मातृभाषा ही नहीं किसी भी एक भाषा के लिए किसी दूसरी भाषा को छोड़ने का पाप नहीं करेंगे। यदि हम इस देश के सारे नागरिक अपनी इस भाषा नीति पर अमल कर सकें तो एक दशक के भीतर ही हमारा भाषाई और सांस्‍कृतिक आकाश अपने सितारों से झिलमिलाने लगेगा। हमारी सभी भाषाएं आठवीं-दसवीं या किसी भी अनुसूची की सरकारी बैसाखी के बिना ही विश्‍व की किसी भी भाषा से आंख मिला सकेंगी।  

इस मामले हमें इस सत्‍य को स्‍वीकार करना होगा कि ज्‍यादा भाषाओं के उपयोग करने से हमारे मानसिक और शारिरिक स्‍वास्‍थ्‍य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। हम और हमारे बच्‍चे जितनी भाषाएं बोलेंगे उनका उतना अधिक मानसिक और बौद्धिक विकास होगा। साथ ही इस गलतफहमी से बाहर आना होगा कि मां-बोली बोलने से बच्‍चे अंग्रेजी नहीं सीख पाते हैं और उनके भविष्‍य, रोजगार और व्‍यवसायिक जीवन पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है।  

इसके बाद जहां तक आठवीं अनुसूची की बात है। हमें राधा को नचाने के लिए नो मन तेल जुटाने की कवायद के साथ-साथ अपनी गंभरी देवी के लिए भी कोशिश करना चाहिए। मेरा सोचना है कि राधा जब नाचेगी तब नाचेगी तब तक प्रदेश स्‍तर पर बोलियों की एक अलग अनुसूची बनाकर जिन प्रदेशों में वे बोली जाती हैं, वहां नियोजित पाठ्यक्रम को प्रभावित किए बिना उन्‍हें पांचवी कक्षा तक अनिर्वाय/ऐच्छिक अनौपचारिक विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। इससे इन बोलियों-भाषाओं की समाज में स्‍वीकार्यता के साथ-साथ रचनात्‍मकता को भी प्रोत्‍साहन मिलेगा।

प्रदेश की बोलियों को पुर्नजीवन देने के लिए इसे मानने में किसी भी प्रदेश सरकार और लोगों को कोई परेशानी भी नहीं होगी। हिमाचल में तो पहाड़ी बोली-भाषाओं में रचनात्‍मक को प्रोत्‍साहित करने के लिए पहले से ही अकादमी मौजूद है। मुझे लगता है कि हम आठवीं अनुसूची के बजाए अपने प्रदेश में ही जोर लगाएं तो इन दम तोड़ती भाषाओं को सहेजने की लड़ाई सहजता से जीत जाएंगे। एक बात जो सबसे जरूरी है और जो कोई सरकार हमारे लिए नहीं कर सकती है। हमें अपनी भाषाओं में जीना होगा और अपनी मातृभाषा को बोलने और जीने का कोई मौका नहीं छोड़ना होगा। तभी हम पहाड़ी गांधी बाबा कांसीराम, हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार और लालचंद प्रार्थी के सपनों को साकार कर पाएंगे।

 

कुशल कुमार  

मो 7039101062/9869244269              

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

अपनी बोलियों के लिए

अगस्त 26, 2021 0


दिव्‍य हिमाचल में प्रकाशित लेख पहला हिस्‍सा  

प्रकाशन दिनांक  1 अगस्‍त 2021 





अपनी बोलियों के लिए

 

पहल में छपे एक लेख के अनुसार 70 साल में हलाक हुई 300 जुबानें एक सौ छियानबे  बोलियों निशाने पर हैं। सच में यह बहुत बड़ा सांस्‍कृतिक संकट है। दिन पर दिन छोटी होती जा रही इस दुनिया में हमारे लिए अपनी मां बोलियों की भाषाई विरासत को सहेजना मुश्किल होता जा रहा है  पिछली सदी तक हम सबके पास अपनी-अपनी अलग स्‍वतंत्र दुनियां होतीं थी और उस दुनिया के पास और कुछ हो न हो अपनी एक बोली-भाषा जरुर होती थी। अब एक होने के लिए मरी जा रही इस दुनिया में हम इतनी भाषाओं का क्‍या करें आचार डालें। 

 

   जहां तक भाषाओं की बात है। हमारे बोलना सीखने से मरने तक भाषाएं हमारे साथ रहती हैं। जिस तरह हमारी सांसे रूकती हैं और हम मर जाते हैं। उसी तरह जब हम हमारी भाषाओं में जीना छोड़ देते हैं तो उनकी भी सांसे रूक जाती हैं और वे भी मर जाती हैं। एक भाषा जो हमें अपनी मां के दूध के साथ मिलती हैं, उसे मातृभाषा कहा जाता है। आज के समय में मातृभाषा या अपनी भाषा को जीना एक बहुत ही बड़ा ऐश्‍वर्य है जो हमारे जैसे हर किसी ऐरे-गैरे के बस की बात नहीं है। हमें मां के दूध के साथ हिमाचली पहाड़ी बोली मिली थी, हमने जैसे-तैसे उससे निभा ली। हमारी संतानों से निभ नहीं पा रहा है क्‍योंकि हमने उन्‍हें मां के दूध के साथ हिंदी का दूध भी जन्‍म से ही पिलाना आरंभ कर दिया था।

अब हिंदी के दूध के साथ अंग्रेजी के शक्तिवर्धक चूर्ण वाला दूध ज्‍यादा पिलाया जा रहा है। ऐसे में हिंदी भी अटक-अटक कर जी रही है, अग्रेंजी के तड़के के बिना हिंदी के अखबार तक नहीं निकल पा रहे हैं। हिंदी के पढ़े-लिखे लोग अंग्रेजी के बिना बात पूरी नहीं कह पाते हैं, उन्‍हें अंग्रेजी का सहारा लेना ही पड़ता है। अब तो प्रसार और मनोरंजन माघ्‍यमों ने अंग्रेजी के इतने शब्‍द पिला दिए हैं कि कोई भी औसत भारतीय अंग्रेजी शब्‍दों के बिना इस देश की कोई भी भाषा नहीं बोल पाता है। एक यूट्यूवर देवदत्‍त पटनायक से बातचीत कर रहा था। मेरा दिश-दिश देट-देट है। मेरा और है के बीच पूरे भारी-भारी अंग्रेजी शब्‍द, वह बेचारा चाह कर भी हिंदी नहीं बोल पा रहा था। हालांकि पटनायक जी बिना किसी दूसरी भाषा की बैसाखी के सादी हिंदी में ही बोल रहे थे।

      हम सबने बचपन में बिल्लियों और बंदर की कहानी पड़ी है। जिसमें दो बिल्लियां अपनी रोटी का बंटवारा करने बंदर के पास जाती हैं। बंदर रोटी के दो टुकड़े करता है, उसे एक टुकड़ा बड़ा लगता है तो उससे थोड़ा वह खा लेता है। फिर देखता है तो दूसरा टुकड़ा बड़ा लगता है तो उससे थोड़ा खा लेता है। अब मामला ऐसा है कि आजादी के बाद से हमारी सभी भाषाओं को अंग्रेजी का बंदर थोड़ा-थोड़ा करके खाता जा रहा है। हमारे भारतीय भाषाओं के हितचिंतकों को भी अपनी-अपनी भाषाओं की उतनी चिंता नहीं है। जितनी चिंता इस बात की रहती है कि कहीं देश की किसी दूसरी भाषा को बड़ा टुकड़ा न मिल जाए।

     भारत सरकार ने हमारी भाषाओं के विकास और सरंक्षण के लिए एक आठवीं अनुसूची अनुसूची बनाई है। जिसमें इस समय हिंदी समेत 22 भाषाएं शामिल हैं और 39 भाषाओं के आवेदन विचाराधीन हैं। इसमें एक मजे की बात यह है कि अंग्रेजी इस देश की सर्वाधिक विकसित होती भाषा है, जो इस अनुसूची में नहीं है। वह 39 भाषाओं वाली प्रतीक्षा सूची में है। वैसे अंग्रेजी का दर्जा इस देश में सूचियों अनुसूचियों से बहुत ऊंचा है। उसे इस आडंबर की कोई जरूरत नहीं है।

     वहीं दूसरी तरफ अंग्रेज़ी और शहरीकरण के चलते बोलियां मुख्यधारा से बाहर  हो कर सिमटती जा रही हैं। इन को बोलने और चाहने वालों को लगता है कि आठवीं अनुसूची में आने से उनकी भाषाओं को मान्‍यता और पहचान मिल जाएगी। जिससे सरकारी स्‍तर पर उपयोग होने से उनकी भाषाओं के विकास और प्रसार के द्वार खुल जाएंगे और वे अपने पूर्वजों की भाषाई विरासत को सहेज पाएंगे। इसलिए हिमाचल की पहाड़ी भाषा के साथ देश के अलग-अलग हिस्‍सों में बोली जाने वाली बोलीयों और भाषाओं को इस आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के आंदोलन चलाए जा रहे हैं।

अब आठवीं अनुसूची कोई जादूई चिराग नहीं है, जिसके घिसते ही इन बोलियों-भाषाओं के सारे संकट दूर हो जाएंगे। इस मामले में यह भी देखना प्रासांगिक होगा कि जो 22 भाषाएं आठवीं अनुसूची में हैं, उनका कितना विकास हो रहा है। सामाजिक और राजनीतिक दवाब के चलते मराठी, तमिल, बंगाली आदि संपन्‍न भाषाओं में सरकारी काम कुछ हो रहा है परंतु शिक्षा, सामाजिक और पारिवारिक बोलचाल में तो हिंदी सहित इन सभी की गाड़ी पीछे ही जा रही है।       

भाषाओं के मामले में हमारी स्थिति उस इंसान जैसी है, जो पत्‍नी और मां के बीच बुरी तरह फंसा है। पत्‍नी को तो छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता है और मां का क्‍या किया जाए समझ में नहीं आता है। अंतत: मां को अपने हाल पर छोड़ कर बंदा पत्‍नी के साथ हो लेता है। कभी कभार जा कर मां का हाल पूछ आता है, पैसे-बीसे भेज कर अपराध बोध से मुक्‍त होता रहता है। पत्‍नी भले मां का गला घोंट दे। उसे पूरी छूट है पर उसकी मां को दूसरा कोई कुछ नहीं बोल सकता है। वह मार डालेगा।

कुशल कुमार  

मो 7039101062/9869244269