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शनिवार, 17 अप्रैल 2021

नेताओं से परेशान लोग

इंदौर समाचार में प्रकाशित व्यंग्य

दिनांक 6 फरवरी 2021



 यूं तो लोग बहुत सी बातों से दुखी हैं परंतु इस सूची में नेताओं का नंबर पहला आता है। लोग नेताओं से इतने ज्‍यादा दुखी हैं कि उनकी सारी ऊर्जा नेताओं को गालियां देने में ही खर्च हो जाती है। यह गुस्सा भीतर एक लावे की तरह सुलगता रहता है। बंदे को बस छूने की देर होती है और व‍ह बम की तरह फट पड़ता है। इन बमों के फटने से नेताओं का तो कुछ नहीं बिगड़ता है पर लोग रक्तचाप और मधुमेह के मरीज बनते जा रहे हैं। दुनिया में इन बीमारियों के बढ़ने का असली कारण यह गुस्सा है, खानपान और जीवन शैली तो मुफ्त में बदनाम हैं।  


महीने के आखिर में जब बंदा अपने वेतन की पर्ची देखता है और उसकी अनपढ़ नेताओं के वेतन से तुलना करता है तो उसका खून खौलने लगता है। वह पत्‍नी और बच्चों को डांट-पीट कर गुस्‍सा कम करने की कोशिश करने लगता है लेकिन इससे रोज काम नहीं चलाया जा सकता है। इस चक्‍कर में खुद के पिटने का भी जोखिम रहता है इसीलिए समझदार बंदा ठेके की ओर दौड़ लेता है। वहां जाकर उसे जो ताकत मिलती है उससे वह वहीं बैठे बैठे नेताओं के बारे में 'अनमोल वचन' सुनाने लगता है। जब उसको कोई तवज्जो नहीं देता है तो वह टेबल बजाने लगता है। बदले में ठेके वाले उसको बजा देते हैं। परेशानी, तकलीफ नेता देते हैं बदनाम ठेके वाले और पीने वाले होते हैं।


गनीमत है इन दुखी आत्‍माओं को सोशल मीडिया का एक सुरक्षित ठिकाना मिल गया है, जहां वे जी भर कर नेताओं पर अपनी भड़ास निकालते रह‍ते हैं। नेताओं का वेतन, कैंटीन, भत्ते और पेंशन बंद करो। उनको पढ़ा-लिखा और रिटायर होना चाहिए। यहां भी जब एक आम आदमी इस तरह की पोस्‍टों को फारवर्ड करते-करते थक जाता है और नेताओं को अपने तराजू में तोलता है तो उसका तराजू टूट जाता है। यह टूटा तराजू उसे अवसाद में ले जाता है, उसे अहसास होता है कि उसका पढ़ना, लिखना, जीना सब बेकार गया, नेता हुए बिना मुक्ति नहीं है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।  


इसीलिए लोग डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस-आईपीएस होने के बाद भी नेता बनने की कतार में खड़े मिलते हैं। जिन्‍हें यह ज्ञान पालने में ही प्राप्‍त हो जाता है वे पढ़ने-पढ़ाने के फालतू चक्‍करों में नहीं पड़ते हैं और सीधे काम-धंधे में लग जाते हैं।   


इस मामले में अच्‍छी बात यह है कि बंदा एक को गाली देते-देते कब दूसरी पार्टी में पहुंच जाता है उसे पता ही नहीं चलता है। जहां उसे सारी पीड़ाओं से मुक्ति मिल जाती है और सारी उम्र पार्टी या नेता भक्ति में बीत जाती है। जो बच जाते हैं वे चुनाव में नोटा का बटन दबाते हैं जिससे सारा कचरा साफ हो जाता है। नेताओं का नहीं दिमाग का क्योंकि चुनाव के बाद एक न एक नेता को हमारी सवारी मिल ही जाती है।  


कुशल कुमार

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