अक्षर विश्व उज्जैन में प्रकाशित व्यंग्य
दिनांक 19 अप्रैल 2021
अक्षर विश्व उज्जैन में प्रकाशित व्यंग्य
दिनांक 19 अप्रैल 2021
इंदौर समाचार में प्रकाशित व्यंग्य
दिनांक 7 अप्रैल 2021
इंदौर समाचार में प्रकाशित व्यंग्य
दिनांक 6 फरवरी 2021
महीने के आखिर में जब बंदा अपने वेतन की पर्ची देखता है और उसकी अनपढ़ नेताओं के वेतन से तुलना करता है तो उसका खून खौलने लगता है। वह पत्नी और बच्चों को डांट-पीट कर गुस्सा कम करने की कोशिश करने लगता है लेकिन इससे रोज काम नहीं चलाया जा सकता है। इस चक्कर में खुद के पिटने का भी जोखिम रहता है इसीलिए समझदार बंदा ठेके की ओर दौड़ लेता है। वहां जाकर उसे जो ताकत मिलती है उससे वह वहीं बैठे बैठे नेताओं के बारे में 'अनमोल वचन' सुनाने लगता है। जब उसको कोई तवज्जो नहीं देता है तो वह टेबल बजाने लगता है। बदले में ठेके वाले उसको बजा देते हैं। परेशानी, तकलीफ नेता देते हैं बदनाम ठेके वाले और पीने वाले होते हैं।
गनीमत है इन दुखी आत्माओं को सोशल मीडिया का एक सुरक्षित ठिकाना मिल गया है, जहां वे जी भर कर नेताओं पर अपनी भड़ास निकालते रहते हैं। नेताओं का वेतन, कैंटीन, भत्ते और पेंशन बंद करो। उनको पढ़ा-लिखा और रिटायर होना चाहिए। यहां भी जब एक आम आदमी इस तरह की पोस्टों को फारवर्ड करते-करते थक जाता है और नेताओं को अपने तराजू में तोलता है तो उसका तराजू टूट जाता है। यह टूटा तराजू उसे अवसाद में ले जाता है, उसे अहसास होता है कि उसका पढ़ना, लिखना, जीना सब बेकार गया, नेता हुए बिना मुक्ति नहीं है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इसीलिए लोग डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस-आईपीएस होने के बाद भी नेता बनने की कतार में खड़े मिलते हैं। जिन्हें यह ज्ञान पालने में ही प्राप्त हो जाता है वे पढ़ने-पढ़ाने के फालतू चक्करों में नहीं पड़ते हैं और सीधे काम-धंधे में लग जाते हैं।
इस मामले में अच्छी बात यह है कि बंदा एक को गाली देते-देते कब दूसरी पार्टी में पहुंच जाता है उसे पता ही नहीं चलता है। जहां उसे सारी पीड़ाओं से मुक्ति मिल जाती है और सारी उम्र पार्टी या नेता भक्ति में बीत जाती है। जो बच जाते हैं वे चुनाव में नोटा का बटन दबाते हैं जिससे सारा कचरा साफ हो जाता है। नेताओं का नहीं दिमाग का क्योंकि चुनाव के बाद एक न एक नेता को हमारी सवारी मिल ही जाती है।
कुशल कुमार
2020: एक आखिरी प्रेम कथा
एक कह रहा है, “मैं प्यार करता हूं”
दूसरा कह रहा है, “प्यार करता है तो लिख कर दे”।
पहला कह रहा है, “मैं कह रहा हूं, क्या इतना काफी नहीं है? हमारे यहां प्यार करने की परंपरा है लिख कर देने की नहीं। आज तक किसी ने लिख कर नहीं दिया। क्या शीरी ने फरहाद को लिखकर दिया था? क्या मजनू ने लैला को, पुन्नू ने सस्सी को, महिवाल ने सोहनी को लिख कर दिया था? तुम समझ नहीं रहे हो। सारी दुनिया प्यार की दुश्मन होती है। लिख कर देने से दुश्मन जाग जाते हैं। थाने पहुंच जाते हैं और गुंडे भेज देते हैं। मैं कह रहा हूं मान जाओ। मैं सच में प्यार करता हूं।
दूसरा मान नहीं रहा है। “मूर्ख मत बनाओ। प्यार करते हो तो लिख कर दे दो। इतनी सी बात नहीं मान रहे हो और हजार बातें कर रहे हो”।
“हद है यार! एक बार सबके सामने कहने से शादी और तीन बार कहने से तलाक हो जाता है, तो कहने से प्यार क्यों नहीं हो सकता है”।
“तुम भी ना बातों के उस्ताद हो। मैं तुम्हारे झांसे में आने वाला नहीं हूं। तुम्हारी जुबान का कोई भरोसा नहीं है इसलिए कह रहा हूं लिख कर दो। मुझे तुम्हारे प्यार का कोई ना कोई सबूत चाहिए। जिससे मुझे तुम्हारे प्यार पर यकीन हो जाए”।
“यार। सबूत और दलीलें तो अदालत में चलती हैं। यह तो दिलों का मामला है। इतिहास में एक बार दुष्यंत ने सबूत के तौर पर शकुंतला को अंगूठी दी थी। वह अंगूठी शकुंतला को बहुत महंगी पड़ी थी। इस के चक्कर में उसे क्या-क्या झेलना पड़ा। तुम्हें तो पता ही होगा। दुष्यंत शकुंतला को भूल गया और अंगूठी को मछली खा गई। यह तो उसकी किस्मत अच्छी थी। जिस मछली ने अंगूठी खाई थी। वह मछुआरे के जाल से सीधे राजा की थाली में पहुंच गई। राजा को सबूत मिल गया और शकुंतला को प्यार मिल गया। सोचो यदि अंगूठी किसी और के हाथ लग जाती तो वह किसी और को अपनी शंकुतला बना लेता और शकुंतला रोती रह जाती”।
“तुम कहानियां मत सुनाओ। इतने पहाड़ फाड़ कर तेरे दरवाजे तक आया हूं। जब तक लिख कर नहीं दोगो मानूंगा नहीं”। पहले वाले ने थक कर कह दिया, “अच्छा बाबा, लिख कर दे देता हूं”।
कहानी यहां खत्म हो जाना चाहिए थी पर हुई नहीं।
दूसरा और हत्थे से उखड़ गया और कह रहा है, “तुम तो गजब के पलटू हो। अब लिख कर देने को भी तैयार हो गये। अब तो तुम अपना प्यार वापस लो तब तुम्हारा गिरेबान छोड़ूंगा”।
“यार। प्यार है प्यार कैसे वापस ले सकता हूं शादी नहीं है जो तलाक दे दूं”।
“मुझे कुछ नहीं पता, बस तुम अपना प्यार वापस लो”।
नोट: इस कथा का किसानों और उनके आंदोलन से संबंध है या नहीं, इस पर हम चुप रहेंगे।
कुशल कुमार
अक्षर विश्व उज्जैन में प्रकाशित व्यंग्य।
भुट्टा चर्चा
भुट्टा चोरी की एक सनसनीखेज घटना पर सारे देश में हंगामा
मचा हुआ है। इस पर चर्चा करने के लिए आज हमारे साथ जुड़ रहे हैं। भुट्टा चोर के
प्रवक्ता भीक्खूराम जी, भुट्टा किसान के प्रवक्ता आड़तीलाल जी, खेतीवाड़ी विशेषज्ञ खरपतवार जी और भूख विशेषज्ञ अघाये
राम जी।
भुट्टा चोरी के इस जघन्य और शर्मनाक अपराध के कारण आज सारे देश में अफरातफरी का
माहौल बना हुआ है। कानून व्यवस्था के साथ-साथ नैतिक संकट भी खड़ा हो गया है। चर्चा
की शुरूआत भीक्खूराम जी से करते
हैं। भीक्खूराम जी बताएं
कि आखिर भुक्कड़ जी ने यह
अपराध क्यों किया?
देखिए भूख से परेशान भुक्कड़ जी खेत के पास से गुजर रहे थे तो भुट्टे ने उनको ललचा
कर भुट्टा तोड़ कर खाने के लिए मजबूर कर दिया और जब उनको अपनी गलती का एहसास हुआ
तो वे इस नुकसान की भरपाई करने के लिए भी तैयार हो गये। लेकिन किसान ने इंकार करते
हुए हंगामा खड़ा कर दिया। वे महोदय एक ही बात पर अड़े हुए थे। बाकी सब ठीक पर बताओ
मेरा भुट्टा क्यों तोड़ा?
आड़तीलाल बीच में कूद पड़े। यह तो चोरी और सीनाजोरी है।
आपको पता होना चाहिए कि किसान कितनी मेहनत और प्यार से भुट्टा उगाता है। भुट्टे से उसके कितने सपने और
अरमान जुड़े हुए होते हैं। इन राम जी ने भुट्टा तोड़ा और खा लिया। ठीक है भूख लगी
थी मन ललचा रहा था तो आप किसी का भी भुट्टा तोड़ कर खा लेंगे। शर्मिंदा होने की
जगह भरपाई की धोंस दिखा कर किसान की भावनाओं और मजबूरी का मजाक उड़ाया जा रहा है।
जब तक न्याय नहीं मिलेगा।
हम चुप नहीं बैठेंगे। भुट्टा चोर मुर्दाबाद।…………
न्याय तो होना ही
चाहिए। इसके पहले कि विशेषज्ञों से विचार लें। भीक्खूराम जी जल्दी से अपना जवाब दें।
भीक्खूराम बोलें उसके
पहले ही आड़तीलाल जोर जोर से चिल्लाने लगते हैं। अंधेर गर्दी है। चोर को सजा मिलना चाहिए।
भीक्खूराम भी चिल्लाने लगते हैं। भुट्टा खाया तो क्या हुआ। फिर दोनों एक साथ चिल्लाने लगते हैं और किसी को कुछ समझ नहीं आता है। बड़ी
देर तक हू, हुआ चलती रहती
है। फिर संचालक उन दोनों से भी ज्यादा जोर से चीख कर उन्हें चुप कराने में सफल होता है और बहस के नियमों पर लंबा
प्रवचन देने के बाद विशेषज्ञ घास पतवार जी को आमंत्रित करता है।
घास पतवार जी दार्शनिक लहजे में। खेती वाड़ी बड़ा जोखिम का
काम हो गया है। जंगली और आवारा जानवर तो नुकसान करते ही हैं। अब इंसान भी उनके साथ मिल गया
है।(बीच में भीक्खूराम चीखने लगते हैं।) आप बोल रहे थे तो मैं सुन रहा था। अब आप
सुनिये। जब मैं ही बोल नहीं पा रहा हूं तो किसान खेती कैसे कर पाएगा। कोई भी जब
चाहे भुट्टा तोड़ लेगा तो न्याय कैसे होगा।
भीक्खूराम चिल्लाते हैं। भूख लगी थी खा लिया। पैसे दे रहे हैं तो
नहीं, न्याय चाहिए। अब भुट्टे की जगह खेत में भुक्कड़ जी खड़े हो जाएं। इस हु, हुआ के बीच घास पतवार जी चीखते हैं। भूख चोरी का
अधिकार नहीं है। भुट्टे के बदले भुट्टा यह तो जंगल राज है। हम संविधान को मानने
वाले सभ्य समाज हैं। हमें
न्याय चाहिए।
काफी मशक्कत के बाद किसी
तरह हु,हुआ रोक कर
संचालक अघाये राम जी को आमंत्रित करता है। आप बड़ी देर से और धैर्य से सुन रहे थे।
आप संक्षेप में बात रखें। समय की कमी है।
मैंने अपना जीवन भूख से आरंभ किया था। खा खा के भूख को
ठिकाने लगाने में विश्वास रखता हूं।
भूख लगे तो जो मिले खा लेना चाहिए। मैं इसे मौलिक अधिकारों में शामिल करने की
लड़ाई लड़ रहा हूं। भूख एक प्राकृतिक आपदा है। मेरे मित्र भुक्कड़ पर यह आपदा आई और उन्होनें भुट्टा खा लिया। भुट्टा खा कर उन्होंने कोई गलत काम नहीं किया है। कोई अन्याय हुआ ही नहीं तो न्याय मांगने का सवाल ही पैदा नहीं होता है।
दोस्तो आपने सबके
विचार सुने और मुद्दा बहुत ही गंभीर है। एक तरफ भूख और दूसरी तरफ न्याय। इसका निर्णय हम आपके विवेक पर छोड़ते हैं और बहस
को यहीं समाप्त करते हैं।
नोट : इस बहस में चैनल से कोई निर्देश नहीं मिला था इसलिए
संचालक समझ नहीं पाया कि किसका साथ देना लाभप्रद होगा।
कुशल कुमार