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सोमवार, 14 दिसंबर 2020

आसमान पर थूकोगे

दिसंबर 14, 2020 1
आसमान पर थूकोगे तो थूक मुंह पर आएगी। कहीं भी कचरा फेंकोगे तो वापस घर में आएगा। बीमारी बन कर आए या बरसात की बाढ़ में आए। आसमान पर तो कोई नहीं थूकता है पर सडकों, दीवारों और सार्वजनिक जगहों पर थूकना और कचरा फेंकना हमारा सामाजिक अधिकार है। जिसे हमसे कोई नहीं छीन सकता है। हम सफाई पसंद लोग हैं और हम अपना कचरा भी किसी साफ जगह और सड़क पर फेंकते हैं। जब हम कार-बस से चल रहे होते हैं। तब कांच नीचे कर कचरा फेंकने में जो आनंद मिलता है, वह अतुल्‍य होता है। अतुल्‍य से अतुल्‍य का निर्माण होता है। कचरे का डब्‍बा और गटर जैसी गंदी जगहों का हम गाली देने के लिए इस्‍तेमाल करते हैं। यह गाली संसद में पहुंची और छा गई। गटर कहने पर हंगामा तो बनता ही है। यह अलग बात है। जिस तरह पहाड़ों से नदियां निकलती हैं। उसी तरह शहरों की ईमारतों से गटर निकलते हैं। जितनी बड़ी ईमारत, उतना बड़ा गटर। हमारे शहर और हम शहरी लोग तमाम तरह के गटरों से घिरे हैं और गटरों पर बसे हैं। गटर भी शहरों की झुग्गियों में जिंदगियों की तरह अभिशप्त हैं और उनसे भी अभिशप्‍त हैं गटरों के भीतर जाकर हमारे गंदगी साफ करने वाले। शहरों के पास बहने वाली नदियां यहां तक की समंदर भी शहरों की गंदगी के आगे हार मान चुके हैं। अब तो उन पर चुनाव लड़े जाते हैं। पहले जमाने की बात और थी। नदियों के किनारे नगर बसते थे और जीवन प्राकृतिक था। गंदगी भी प्राकृतिक थी। जो प्रकृति के चक्र में घूम कर प्रकृति में मिल जाती थी। अब शहरों में नदी तालाब हो ना हो गटर होना जरूरी होता है। पानी तो पाइपों में, टैंकरों में, रेल में, कहीं से भी आ जाएगा पर गंदगी कहां जाएगी। आज नगरों में जो भी नदियां और तालाब दफन होने से बच गए हैं। वे गटर बनने के लिए अभिशप्त हैं। यहां मुंबई में शहर के बीचों-बीच मीठी नदी बहती थी। कभी किसी जमाने में उसमें नौका विहार हुआ करता था। पिछले 15 सालों से नगर पालिका के हाकीमों-ठेकेदारों की नौका तैर रही है। गटर शब्द पर ना जाएं। नाम बदनाम है परंतु काम अनमोल है। गटर हमारी स्वच्छता और स्वास्थ्य के रक्षक हैं। उनकी सेहत से हमारी सेहत का अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रकृति ने भी हमारे और हर प्राणी के भीतर नालियां बनाई हैं। जब तक हमारे भीतर की नालियां साफ और चलती रहती हैं, हम स्वस्थ रहते हैं। जब इनके भीतर गंदगी भर जाती है, रुकावट आ जाती है तो हमारे जीवन पर भी संकट आ जाता है। प्रकृति ने तो नालियां ही बनाई थी। हमने अपने आचार-विचार, व्‍यवहार, लालच, स्‍वार्थ, अ‍हंकार, वासनाओं, विकृतियों और नशों आदि की गंदगी से उनको गटर बना दिया है। यह गंदगियां भी प्‍लास्टिक की तरह आसानी से खत्‍म नहीं होती हैं। एक प्‍लास्टिक ने शहरों के गटरों को तो दूसरे ने मानवता में प्रवाह को रोक कर सडांध भर दी है। कुशल कुमार यह लेख आज का आनंद में प्रकाशित है।