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रविवार, 29 अगस्त 2021

अपनी बोलियों के लिए 2

अगस्त 29, 2021 0

दिव्‍य हिमाचल में प्रकाशित लेख

दूसरा व अंतिम हिस्‍सा  प्रकाशन दिनांक  8 अगस्‍त 2021 







 इसी तरह अंग्रेजी हम छोड़ नहीं सकते हैं और अपनी मांबोलियों का क्‍या किया जाए समझ नहीं आता है। हमारा शिक्षा-कारोबार सारा कार्य व्‍यापार सब अंग्रेजी में चलता आ रहा है। साल में एक दिन भाषा दिवस मना कर लेखकों आदि को पुरस्‍कार पकड़ा दिया जाता है। अपनी भाषा का झंडा उठा कर जय बोल दी, मेरी मां महान है का नारा लगा दिया। हो गया। उस बहू का तो पता नहीं पर अंग्रेजी सब भारतीय भाषाओं के गले घोंट रही है पर किसी को कोई शिकायत नहीं है। उसे सब खून माफ हैं।

इस मामले में हमारी स्थिति डाल पर बैठ डाल को काटने वाले शेखचिल्‍ली से भी बुरी है। हम अपनी भाषाओं के पेड़ों की जड़ों को काटे भी जा रहे हैं और उसके फलने-फूलने की उम्‍मीद भी कर रहे हैं। हम अपने बच्‍चों को अंग्रेजी में पढ़ाएंगे और उनका अंग्रेजी का मुहावरा न बिगड़ जाए इसलिए उनसे अंग्रेजी में ही बोलेंगे और चाहते हैं कि भारतीय भाषाओं का विकास हो। इस भोलेपन पर सौ दो सौ की क्‍या बात है, लाखों जुबानें कुरबान हो सकती हैं। इस मामले में साहित्‍यकारों से बात करो तो वे कहते हैं, भाषा उनका नहीं समाज का विषय है  क्‍योंकि उनकी संतानें भी तो अंग्रेजी माध्‍यम के स्‍कूलों में ही पढ़ रही हैं।          

ऐसे में नई शिक्षा नीति के मसौदे का यह प्रस्‍ताव कि पांचवीं तक मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाएगी। इस तपते रेगीस्‍तान में एक नख‍लिस्‍तान की तरह नजर आ रहा है। यह प्रस्‍ताव यदि लागू हो गया तो इससे देश की भाषाओं को एक नया जीवन मिल सकता है। परंतु अंग्रेजी और अंग्रेजी शिक्षा के साथ बहुत से लोगों के स्‍वार्थ जुडें हैं और अंग्रेजीदां मध्‍य वर्ग ऐसा होने नहीं देगा।

वैसे भी भाषाओं के मामले में सरकारों से बहुत ज्‍यादा उम्‍मीद करना बेमानी है। उन पर इतने दवाब हैं कि उनके लिए एक स्‍पष्‍ट भाषा नीति बनाना संभव ही नहीं है। ऐसे में हमें ही अपनी भाषा नीति बनानी होगी। हम सब जानते हैं कि आज के समय में हमारा किसी एक भाषा से काम नहीं चल सकता है। हमें अढ़ाई भाषाओं का ज्ञान तो होना ही चाहिए। एक मातृ भाषा, हिंदी/अंग्रेजी में से एक पूरी, एक आधी। यह एक व्‍यावहारिक जीवन जीने की कम से कम भाषाई जरुरत है। जिन्‍हें अपने ही क्षेत्र में जीवन बिताना हो, वे क्षेत्र की जरुरत के अनुसार हिंदी या अंग्रेजी किसी एक के बिना भी काम चला सकते हैं।

यदि हम अपनी-अपनी मां बोली/भाषाओं को प्‍यार करते हैं तो हमें ही यह तय करना होगा कि हम अंग्रेजी या हिंदी किसी भी भाषा के लिए अपनी मातृ बोली/भाषा नहीं छोड़ेगे। मातृभाषा ही नहीं किसी भी एक भाषा के लिए किसी दूसरी भाषा को छोड़ने का पाप नहीं करेंगे। यदि हम इस देश के सारे नागरिक अपनी इस भाषा नीति पर अमल कर सकें तो एक दशक के भीतर ही हमारा भाषाई और सांस्‍कृतिक आकाश अपने सितारों से झिलमिलाने लगेगा। हमारी सभी भाषाएं आठवीं-दसवीं या किसी भी अनुसूची की सरकारी बैसाखी के बिना ही विश्‍व की किसी भी भाषा से आंख मिला सकेंगी।  

इस मामले हमें इस सत्‍य को स्‍वीकार करना होगा कि ज्‍यादा भाषाओं के उपयोग करने से हमारे मानसिक और शारिरिक स्‍वास्‍थ्‍य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। हम और हमारे बच्‍चे जितनी भाषाएं बोलेंगे उनका उतना अधिक मानसिक और बौद्धिक विकास होगा। साथ ही इस गलतफहमी से बाहर आना होगा कि मां-बोली बोलने से बच्‍चे अंग्रेजी नहीं सीख पाते हैं और उनके भविष्‍य, रोजगार और व्‍यवसायिक जीवन पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है।  

इसके बाद जहां तक आठवीं अनुसूची की बात है। हमें राधा को नचाने के लिए नो मन तेल जुटाने की कवायद के साथ-साथ अपनी गंभरी देवी के लिए भी कोशिश करना चाहिए। मेरा सोचना है कि राधा जब नाचेगी तब नाचेगी तब तक प्रदेश स्‍तर पर बोलियों की एक अलग अनुसूची बनाकर जिन प्रदेशों में वे बोली जाती हैं, वहां नियोजित पाठ्यक्रम को प्रभावित किए बिना उन्‍हें पांचवी कक्षा तक अनिर्वाय/ऐच्छिक अनौपचारिक विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। इससे इन बोलियों-भाषाओं की समाज में स्‍वीकार्यता के साथ-साथ रचनात्‍मकता को भी प्रोत्‍साहन मिलेगा।

प्रदेश की बोलियों को पुर्नजीवन देने के लिए इसे मानने में किसी भी प्रदेश सरकार और लोगों को कोई परेशानी भी नहीं होगी। हिमाचल में तो पहाड़ी बोली-भाषाओं में रचनात्‍मक को प्रोत्‍साहित करने के लिए पहले से ही अकादमी मौजूद है। मुझे लगता है कि हम आठवीं अनुसूची के बजाए अपने प्रदेश में ही जोर लगाएं तो इन दम तोड़ती भाषाओं को सहेजने की लड़ाई सहजता से जीत जाएंगे। एक बात जो सबसे जरूरी है और जो कोई सरकार हमारे लिए नहीं कर सकती है। हमें अपनी भाषाओं में जीना होगा और अपनी मातृभाषा को बोलने और जीने का कोई मौका नहीं छोड़ना होगा। तभी हम पहाड़ी गांधी बाबा कांसीराम, हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार और लालचंद प्रार्थी के सपनों को साकार कर पाएंगे।

 

कुशल कुमार  

मो 7039101062/9869244269              

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

अपनी बोलियों के लिए

अगस्त 26, 2021 0


दिव्‍य हिमाचल में प्रकाशित लेख पहला हिस्‍सा  

प्रकाशन दिनांक  1 अगस्‍त 2021 





अपनी बोलियों के लिए

 

पहल में छपे एक लेख के अनुसार 70 साल में हलाक हुई 300 जुबानें एक सौ छियानबे  बोलियों निशाने पर हैं। सच में यह बहुत बड़ा सांस्‍कृतिक संकट है। दिन पर दिन छोटी होती जा रही इस दुनिया में हमारे लिए अपनी मां बोलियों की भाषाई विरासत को सहेजना मुश्किल होता जा रहा है  पिछली सदी तक हम सबके पास अपनी-अपनी अलग स्‍वतंत्र दुनियां होतीं थी और उस दुनिया के पास और कुछ हो न हो अपनी एक बोली-भाषा जरुर होती थी। अब एक होने के लिए मरी जा रही इस दुनिया में हम इतनी भाषाओं का क्‍या करें आचार डालें। 

 

   जहां तक भाषाओं की बात है। हमारे बोलना सीखने से मरने तक भाषाएं हमारे साथ रहती हैं। जिस तरह हमारी सांसे रूकती हैं और हम मर जाते हैं। उसी तरह जब हम हमारी भाषाओं में जीना छोड़ देते हैं तो उनकी भी सांसे रूक जाती हैं और वे भी मर जाती हैं। एक भाषा जो हमें अपनी मां के दूध के साथ मिलती हैं, उसे मातृभाषा कहा जाता है। आज के समय में मातृभाषा या अपनी भाषा को जीना एक बहुत ही बड़ा ऐश्‍वर्य है जो हमारे जैसे हर किसी ऐरे-गैरे के बस की बात नहीं है। हमें मां के दूध के साथ हिमाचली पहाड़ी बोली मिली थी, हमने जैसे-तैसे उससे निभा ली। हमारी संतानों से निभ नहीं पा रहा है क्‍योंकि हमने उन्‍हें मां के दूध के साथ हिंदी का दूध भी जन्‍म से ही पिलाना आरंभ कर दिया था।

अब हिंदी के दूध के साथ अंग्रेजी के शक्तिवर्धक चूर्ण वाला दूध ज्‍यादा पिलाया जा रहा है। ऐसे में हिंदी भी अटक-अटक कर जी रही है, अग्रेंजी के तड़के के बिना हिंदी के अखबार तक नहीं निकल पा रहे हैं। हिंदी के पढ़े-लिखे लोग अंग्रेजी के बिना बात पूरी नहीं कह पाते हैं, उन्‍हें अंग्रेजी का सहारा लेना ही पड़ता है। अब तो प्रसार और मनोरंजन माघ्‍यमों ने अंग्रेजी के इतने शब्‍द पिला दिए हैं कि कोई भी औसत भारतीय अंग्रेजी शब्‍दों के बिना इस देश की कोई भी भाषा नहीं बोल पाता है। एक यूट्यूवर देवदत्‍त पटनायक से बातचीत कर रहा था। मेरा दिश-दिश देट-देट है। मेरा और है के बीच पूरे भारी-भारी अंग्रेजी शब्‍द, वह बेचारा चाह कर भी हिंदी नहीं बोल पा रहा था। हालांकि पटनायक जी बिना किसी दूसरी भाषा की बैसाखी के सादी हिंदी में ही बोल रहे थे।

      हम सबने बचपन में बिल्लियों और बंदर की कहानी पड़ी है। जिसमें दो बिल्लियां अपनी रोटी का बंटवारा करने बंदर के पास जाती हैं। बंदर रोटी के दो टुकड़े करता है, उसे एक टुकड़ा बड़ा लगता है तो उससे थोड़ा वह खा लेता है। फिर देखता है तो दूसरा टुकड़ा बड़ा लगता है तो उससे थोड़ा खा लेता है। अब मामला ऐसा है कि आजादी के बाद से हमारी सभी भाषाओं को अंग्रेजी का बंदर थोड़ा-थोड़ा करके खाता जा रहा है। हमारे भारतीय भाषाओं के हितचिंतकों को भी अपनी-अपनी भाषाओं की उतनी चिंता नहीं है। जितनी चिंता इस बात की रहती है कि कहीं देश की किसी दूसरी भाषा को बड़ा टुकड़ा न मिल जाए।

     भारत सरकार ने हमारी भाषाओं के विकास और सरंक्षण के लिए एक आठवीं अनुसूची अनुसूची बनाई है। जिसमें इस समय हिंदी समेत 22 भाषाएं शामिल हैं और 39 भाषाओं के आवेदन विचाराधीन हैं। इसमें एक मजे की बात यह है कि अंग्रेजी इस देश की सर्वाधिक विकसित होती भाषा है, जो इस अनुसूची में नहीं है। वह 39 भाषाओं वाली प्रतीक्षा सूची में है। वैसे अंग्रेजी का दर्जा इस देश में सूचियों अनुसूचियों से बहुत ऊंचा है। उसे इस आडंबर की कोई जरूरत नहीं है।

     वहीं दूसरी तरफ अंग्रेज़ी और शहरीकरण के चलते बोलियां मुख्यधारा से बाहर  हो कर सिमटती जा रही हैं। इन को बोलने और चाहने वालों को लगता है कि आठवीं अनुसूची में आने से उनकी भाषाओं को मान्‍यता और पहचान मिल जाएगी। जिससे सरकारी स्‍तर पर उपयोग होने से उनकी भाषाओं के विकास और प्रसार के द्वार खुल जाएंगे और वे अपने पूर्वजों की भाषाई विरासत को सहेज पाएंगे। इसलिए हिमाचल की पहाड़ी भाषा के साथ देश के अलग-अलग हिस्‍सों में बोली जाने वाली बोलीयों और भाषाओं को इस आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के आंदोलन चलाए जा रहे हैं।

अब आठवीं अनुसूची कोई जादूई चिराग नहीं है, जिसके घिसते ही इन बोलियों-भाषाओं के सारे संकट दूर हो जाएंगे। इस मामले में यह भी देखना प्रासांगिक होगा कि जो 22 भाषाएं आठवीं अनुसूची में हैं, उनका कितना विकास हो रहा है। सामाजिक और राजनीतिक दवाब के चलते मराठी, तमिल, बंगाली आदि संपन्‍न भाषाओं में सरकारी काम कुछ हो रहा है परंतु शिक्षा, सामाजिक और पारिवारिक बोलचाल में तो हिंदी सहित इन सभी की गाड़ी पीछे ही जा रही है।       

भाषाओं के मामले में हमारी स्थिति उस इंसान जैसी है, जो पत्‍नी और मां के बीच बुरी तरह फंसा है। पत्‍नी को तो छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता है और मां का क्‍या किया जाए समझ में नहीं आता है। अंतत: मां को अपने हाल पर छोड़ कर बंदा पत्‍नी के साथ हो लेता है। कभी कभार जा कर मां का हाल पूछ आता है, पैसे-बीसे भेज कर अपराध बोध से मुक्‍त होता रहता है। पत्‍नी भले मां का गला घोंट दे। उसे पूरी छूट है पर उसकी मां को दूसरा कोई कुछ नहीं बोल सकता है। वह मार डालेगा।

कुशल कुमार  

मो 7039101062/9869244269               
 

मंगलवार, 18 मई 2021

ऑक्सीजन पर प्रशासन

मई 18, 2021 0

इंदौर समाचार में प्रकाशित व्‍यंग्‍य

दिनांक 17 मई 2021





 इन दिनों हम सब उस वायु को ढूंढ रहे हैंजिसमें हमारे प्राणों ने पहली सांस ली थी। इस प्राणवायु को डॉक्टरी भाषा में ऑक्सीजन कहा जाता है। आम जन इसे गैस कहते हैं।

आज हमारा सारा प्रशासन गैस पर है, पता नहीं कब सांस की डोर टूट जाए। प्रशासन की नहीं, जनता की सांस टूटने की बात हो रही है। प्रशासन तो अमर होता है। अक्‍सर उसके फेफड़ों को ठेकेदारों और दलालों की प्राणवायु पर ज्‍यादा निर्भर पाया जाता है। वैसे मूलरूप से प्रशासन के मुलाजिम साहब से, साहब बड़े साहब से और बड़े साहब मंत्री साहब से, मंत्री सरकार  से, सरकार पार्टी से और पार्टीयां जनता के प्राणों से प्राणवायु प्राप्‍त करते हैं। दिल्‍ली में शराब की कतार में खड़ी महिला बता रही थी कि 

वह पिछले पैंतीस सालों से शराब की ऑक्‍सीजन पर जी रही है।   

उस म‍हिला को तो शराब की लत होगी पर हमारे मंत्री और पार्टियां तो सच में ऑक्‍सीजन कनस्‍नट्रेटर हैं। यह लोगों के प्राणों को तोतों में डाल कर प्राणों से प्राणवायु सोंखते हैं। हम सबने बचपन में एक कहानी सुनी है, जिसमें एक राक्षस के प्राण कहीं दूर टंगे पिंजरे में बंद तो‍ते में होते थे। हमारे नेताओं के प्राण भी हमारे वोटों और देश के नोटों में बंद पाए जाते हैं। इस महामारी के संकट में यह लोग भी अपने अपने प्राणों के तोतों को संभाल रहे हैं, जिनमें इनके प्राण बंद हैं।

इस महामारी में भी प्रशासन और सरकार जनता को उम्‍मीदों के तोते पकड़ा रहे हैं और देश की जनता के प्राणों से वायु निकलती जा रही है। अब इस भोली उम्‍मीद पर रोज सैकड़ों प्राण कुरबान हो रहे हैं कि सरकार-प्रशासन को समय रहते प्राणवायु का इंतजाम कर लेना चाहिए था। यह तो शादी की घोड़ी से घुड़दौड़ जीतने की उम्‍मीद करने से भी बेमानी है। यह घोड़ी तो तब चलती है जब सारा कुनबा मुहल्‍ले के साथ नाच कर थक जाता है। कोरोना के मरीजों का नाच कम हो गया था, घोड़ी भी खड़ी हो गई थी। अब मौत का नाच चल रहा है तो घोड़ी भी चलेगी।   

हमें भी हमारे प्राण किसी वायु पर चलते हैं, यह तभी पता चलता है जब हमारे फेफड़े प्राणवायु ढूंढते-ढूंढते दम तोड़ने लगते हैं। इस महामारी में भी कालाबजारी से मजबूरी का लाभ लेने से लोग बाज नहीं आ रहे हैं। देर-सबेर कोरोना के वायरस का भी कोई न कोई इलाज मिल ही जाएगा परंतु यह लापरवाही, गैर-जिम्‍मेदारी, बेईमानी, आलस और स्‍वार्थी होने का वायरस हममें सामूहिक रूप से कूट-कूट कर भरा है, इसका कोई इलाज नहीं है।  

कुशल कुमार


रविवार, 25 अप्रैल 2021

सफाई चिंतन चालू है।

अप्रैल 25, 2021 0

 अक्षर विश्व उज्जैन में प्रकाशित व्यंग्य

दिनांक 19 अप्रैल 2021



सफाई चिंतन चालू है।
हम दुनिया के सबसे महान सफाई पसंद लोग हैं और कोई भी सफाई के मामले में हमारा मुकाबला नहीं कर सकता है। हम किसी तराजू पर तोले नहीं जा सकते हैं क्योंकि हम महान हैं। हम सफाई को लेकर हमेशा सतर्क रहते हैं और एक क्षण भी कचरा या गंदगी सहन नहीं कर सकते हैं।
जैसे ही हमें घर के अंदर कचरे का छोटा सा अंश भी दिखता है, हम तुरंत उसे खिड़की, बाल्कनी, दरवाजा से फेंक कर बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। हमारा दावा है कि हमारे घरों और हम पर गंदगी का कोई निशान नहीं मिल सकता है। हम सड़क पर चलते-चलते, गाड़ी-बस में, बाग-बगीचे में या कहीं भी कुछ खा या पी रहे हों और उससे छिलका, कागज, बोतल, प्लास्टिक की थैली जो भी अखाद्य निकलता है। हम उसे उसी समय, उसी जगह फेंक कर स्वंय को तुरंत स्वच्छ कर लेते हैं।
किसी भी कचरे को ढोना हमें कतई मंजूर नहीं है। हम पान-तंबाखू का लुत्फ उठाते समय भी पूरी तरह सावधान रहते हैं। जैसे ही पान-तंबाखू का आनंद पूरा होता है हम पान की पीक का उसी स्थान पर तुरंत विसर्जन कर देते हैं। पीक या किसी भी गंदगी की क्या मजाल है जो हमारे भीतर प्रवेश कर जाए। अब मुंह में पान हो और छींटों से सामने वाले की मुंह, कपड़ों सहित सारे शरीर की शुद्धि हो जाए वो अलग बात है।
स्वच्छता के साथ हमारा शुद्धि का भी विशेष आग्रह इतना भारी है कि मंदिरों और घरों के साथ-साथ हमने दफ्तरों और दुकानों तक में चपलों जूतों का प्रवेश वर्जित कर रखा है। हमसे जितना हो सके करते हैं पर सारी दुनिया का ठेका हमने थोड़ी ले रखा है। हमारी जिम्मेदारी घर, कार, दुकान-दफ्तरों के दरवाजों के भीतर तक सीमित है।
सड़कें, मुहल्ले और सार्वजनिक स्थल सरकार की जिम्मेदारी है। इस मामले में सोचने की बात यह है कि हम लोग सड़कों पर कचरा नहीं फेंकेगे तो सफाई काम में लगे लाखों लोगों को सरकार काम से निकाल देगी और वे बेरोजगार हो जाएंगे। सरकारें भी कमाई के पीछे पड़ी हैं, कचरा उठवाने के बजाए इन लोगों को हम जैसे कचरा फेंकनें वालों से दंड बसूलने के काम में लगा दिया है। इस कारण सफाई हो नहीं पाती है और ठीकरा हम जैसे सफाई पसंद नागरिकों के सिर पर फोड़ा जाता है।
इसी तरह हमारी खिड़की के नीचे टैरेस वाले घर में एक सज्जन ने आते ही टेरेस में बगीचा लगाया और कहा कि सहयोग करें। हमने उसी दिन से कचरे के बजाए फलों-सब्जियों के छिलके और बचा हुआ अन्न फेंक कर पौधों को खाद देना आरंभ कर दिया। हमारे इस सहयोग से सरकार की तरह उन सज्जन ने भी उखड़ कर अपना बगीचा उखाड़ छज्जा डाल दिया। अब जब मिलो ऊपर वालों को कोसते रहते हैं और हम आज तक समझ नहीं पाए कि घर और अपने आप की सफाई रखने में गलत क्या है?
कुशल कुमार

कोराना मतलब फीकी चाय में डुबोया मीठा बिस्किट

अप्रैल 25, 2021 0

  इंदौर समाचार में प्रकाशित व्यंग्य

दिनांक 7 अप्रैल 2021




कोराना मतलब फीकी चाय में डुबोया मीठा बिस्किट
कोरोना ने सारी दुनिया की चलती गाड़ी में ब्रेक लगा दिया है। इस सहमी, ठहरी और व्याकुल सी दुनिया को सूझ ही नहीं पड़ रही है। घर के अंदर रह नहीं सकते, भूखे मर जाएंगे। बाहर निकल नहीं सकते, कोरोना मार जाएगा! इस भूख और रोटी के बीच नौकरी वाले, सब्जी वाले, राशन वाले, दूध वाले, दवा-दारू वाले और न जाने क्या-क्या वाले लोग आते हैं। सब एक दूसरे के बिना अपना पेट भर ही नहीं सकते हैं।
अब तो इस कलमुंहे कोराना को आए एक साल से भी ज्यादा हो गया है, पीछा ही नहीं छोड़ रहा है। अक्सर ऐसा होता है कि चोर आगे और पुलिस पीछे होती है, लेकिन इस मामले में दुनिया आगे-आगे भाग रही है और कोरोना पीछे-पीछे। पिछले महीने हम भागते-भागते थक कर सुस्ताने बैठे ही थे कि 'शेर आया,शेर आया' की तर्ज पर शोर मच गया – भागो-भागो कोराना आ गया।
कहते हैं, जान है तो जहान है। जान रहेगी तो नौकरी भी मिल जाएगी। मास्क और दो गज की दूरी जरूरी है। कोरोना तब तक आपके घर नहीं आएगा, जब तक आप उसे लेने बाहर नहीं जाएंगे। यह अलग बात है कि धूप में अचानक से हो जाने वाली बरसात की तरह अचानक चीन के वुहान से जो कोरोना आया था, उसके बारे में विश्व स्वास्थ संगठन को एक साल की बाद भी पता नहीं चल पा रहा है कि वह आया कैसे था और जाएगा कैसे?
अब तो घर से बाहर निकला हर आदमी शक के घेरे में है। इस नामुराद कोरोना ने विश्व स्वास्थ संगठन, सरकारों, डाक्टरों, वैज्ञानिकों, नेताओं से लेकर आम आदमी तक को फिलासफर बना दिया है। पॉजटिव और निगेटिव में विभाजित इस दुनिया में हर एक के पास कोरोना को लेकर अपना फलसफा है। कुछ हैं जो मुंह को मास्क में लपेटे सैनिटाईजर की फुहार में नहाने के बाद हाथ धोते-धोते कोरोना-कोरोना की माला जप रहे हैं। कुछ कोरोना के अस्तित्व को खारिज करते हुए, अपनी सोच की सुविधा के अनुसार किसी पार्टी, देश या दवा माफिया की साजिश बता रहे हैं। यह भी कह रहे हैं जहां कोरोना है चुनाव घोषित करवा दो कोरोना नेताओं से डर के से भाग जाएगा।
कुछ मास्क को नाक के नीचे रख रहे हैं। यह वे लोग हैं जो हमेशा फिफ्टी-फिफ्टी रहते हैं और हर मामले में अपनी नाक ऊंची रखते हैं। उनका कहना है, कोरोना हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, हमने तो मुंह पहले से बंद कर रखा है, किसी कोरोना-फोना की क्या मजाल है जो हमारी नाक के नीचे कोई फितरत कर जाए।
कोरोना कितना खतरनाक है यह तो वही बता सकते हैं, जिनके अपनों की जान चली जा रही है। बाकी तो कोरोना का परहेज उसी तरह कर रहे हैं जैसे मधुमेह के रोगी बिना चीनी वाली फीकी चाय में मीठे बिस्कुट डुबा कर खाते हैं।
कुशल कुमार
Kushal Kumar और वह टेक्स्ट जिसमें 'व्यंग्य कोराना मतलब मेंडुबोयामीठाबिस्किट कोरोना दुनिय चलती गाडी और व्याकुल भूख सकते, कोरोना क्या वाले. होती आया कोराना गया| भी आप निगेटिव कोरोना दुनिया सनिटाईजर अस्तित्व भाग मेशा -फिप्टी और उनका कोरोना पहलेसे मजाल खतरनाक वही परहेज सकते मधुमेह मीठे बिस्किट डुबा कर कुशल कुमार हारमोनी, प्लॉट सेक्टर-1 कामोठे, मुबई 410209 9869244269/ 1062' लिखा है की फ़ोटो हो सकती है

शनिवार, 17 अप्रैल 2021

नेताओं से परेशान लोग

अप्रैल 17, 2021 0

इंदौर समाचार में प्रकाशित व्यंग्य

दिनांक 6 फरवरी 2021



 यूं तो लोग बहुत सी बातों से दुखी हैं परंतु इस सूची में नेताओं का नंबर पहला आता है। लोग नेताओं से इतने ज्‍यादा दुखी हैं कि उनकी सारी ऊर्जा नेताओं को गालियां देने में ही खर्च हो जाती है। यह गुस्सा भीतर एक लावे की तरह सुलगता रहता है। बंदे को बस छूने की देर होती है और व‍ह बम की तरह फट पड़ता है। इन बमों के फटने से नेताओं का तो कुछ नहीं बिगड़ता है पर लोग रक्तचाप और मधुमेह के मरीज बनते जा रहे हैं। दुनिया में इन बीमारियों के बढ़ने का असली कारण यह गुस्सा है, खानपान और जीवन शैली तो मुफ्त में बदनाम हैं।  


महीने के आखिर में जब बंदा अपने वेतन की पर्ची देखता है और उसकी अनपढ़ नेताओं के वेतन से तुलना करता है तो उसका खून खौलने लगता है। वह पत्‍नी और बच्चों को डांट-पीट कर गुस्‍सा कम करने की कोशिश करने लगता है लेकिन इससे रोज काम नहीं चलाया जा सकता है। इस चक्‍कर में खुद के पिटने का भी जोखिम रहता है इसीलिए समझदार बंदा ठेके की ओर दौड़ लेता है। वहां जाकर उसे जो ताकत मिलती है उससे वह वहीं बैठे बैठे नेताओं के बारे में 'अनमोल वचन' सुनाने लगता है। जब उसको कोई तवज्जो नहीं देता है तो वह टेबल बजाने लगता है। बदले में ठेके वाले उसको बजा देते हैं। परेशानी, तकलीफ नेता देते हैं बदनाम ठेके वाले और पीने वाले होते हैं।


गनीमत है इन दुखी आत्‍माओं को सोशल मीडिया का एक सुरक्षित ठिकाना मिल गया है, जहां वे जी भर कर नेताओं पर अपनी भड़ास निकालते रह‍ते हैं। नेताओं का वेतन, कैंटीन, भत्ते और पेंशन बंद करो। उनको पढ़ा-लिखा और रिटायर होना चाहिए। यहां भी जब एक आम आदमी इस तरह की पोस्‍टों को फारवर्ड करते-करते थक जाता है और नेताओं को अपने तराजू में तोलता है तो उसका तराजू टूट जाता है। यह टूटा तराजू उसे अवसाद में ले जाता है, उसे अहसास होता है कि उसका पढ़ना, लिखना, जीना सब बेकार गया, नेता हुए बिना मुक्ति नहीं है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।  


इसीलिए लोग डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस-आईपीएस होने के बाद भी नेता बनने की कतार में खड़े मिलते हैं। जिन्‍हें यह ज्ञान पालने में ही प्राप्‍त हो जाता है वे पढ़ने-पढ़ाने के फालतू चक्‍करों में नहीं पड़ते हैं और सीधे काम-धंधे में लग जाते हैं।   


इस मामले में अच्‍छी बात यह है कि बंदा एक को गाली देते-देते कब दूसरी पार्टी में पहुंच जाता है उसे पता ही नहीं चलता है। जहां उसे सारी पीड़ाओं से मुक्ति मिल जाती है और सारी उम्र पार्टी या नेता भक्ति में बीत जाती है। जो बच जाते हैं वे चुनाव में नोटा का बटन दबाते हैं जिससे सारा कचरा साफ हो जाता है। नेताओं का नहीं दिमाग का क्योंकि चुनाव के बाद एक न एक नेता को हमारी सवारी मिल ही जाती है।  


कुशल कुमार

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

2020: एक आखिरी प्रेम कथा

अप्रैल 07, 2021 0


 व्यंग्य:

2020: एक आखिरी प्रेम कथा


एक कह रहा है, “मैं प्यार करता हूं”

दूसरा कह रहा है, “प्यार करता है तो लिख कर दे”।  

पहला कह रहा है, “मैं कह रहा हूं, क्या इतना काफी नहीं है? हमारे यहां प्यार करने की परंपरा है लिख कर देने की नहीं। आज तक किसी ने लिख कर नहीं दिया। क्या शीरी ने फरहाद को लिखकर दिया था? क्या मजनू ने लैला को, पुन्नू ने सस्‍सी को, महिवाल ने सोहनी को लिख कर दिया था? तुम समझ नहीं रहे हो। सारी दुनिया प्यार की दुश्मन होती है। लिख कर देने से दुश्मन जाग जाते हैं। थाने पहुंच जाते हैं और गुंडे भेज देते हैं। मैं कह रहा हूं मान जाओ। मैं सच में प्यार करता हूं।

दूसरा मान नहीं रहा है। “मूर्ख मत बनाओ। प्यार करते हो तो लिख कर दे दो। इतनी सी बात नहीं मान रहे हो और हजार बातें कर रहे हो”।  

“हद है यार! एक बार सबके सामने कहने से शादी और तीन बार कहने से तलाक हो जाता है, तो कहने से प्यार क्यों नहीं हो सकता है”।  

“तुम भी ना बातों के उस्ताद हो। मैं तुम्हारे झांसे में आने वाला नहीं हूं। तुम्हारी जुबान का कोई भरोसा नहीं है इसलिए कह रहा हूं लिख कर दो। मुझे तुम्हारे प्यार का कोई ना कोई सबूत चाहिए। जिससे मुझे तुम्‍हारे प्‍यार पर यकीन हो जाए”।   

“यार। सबूत और दलीलें तो अदालत में चलती हैं। यह तो दिलों का मामला है। इतिहास में एक बार दुष्यंत ने सबूत के तौर पर शकुंतला को अंगूठी दी थी। वह अंगूठी शकुंतला को बहुत महंगी पड़ी थी। इस के चक्‍कर में उसे क्या-क्या झेलना पड़ा। तुम्हें तो पता ही होगा। दुष्यंत शकुंतला को भूल गया  और अंगूठी को मछली खा गई। यह तो उसकी किस्मत अच्छी थी। जिस मछली ने अंगूठी खाई थी। वह मछुआरे के जाल से सीधे राजा की थाली में पहुंच गई। राजा को सबूत मिल गया और शकुंतला को प्यार मिल गया। सोचो यदि अंगूठी किसी और के हाथ लग जाती तो वह किसी और को अपनी शंकुतला बना लेता और शकुंतला रोती रह जाती”।


“तुम कहानियां मत सुनाओ। इतने पहाड़ फाड़ कर तेरे दरवाजे तक आया हूं। जब तक लिख कर नहीं दोगो मानूंगा नहीं”।  पहले वाले ने थक कर कह दिया, “अच्‍छा बाबा, लिख कर दे देता हूं”। 

कहानी यहां खत्‍म हो जाना चाहिए थी पर हुई नहीं।

दूसरा और हत्‍थे से उखड़ गया और कह रहा है, “तुम तो गजब के पलटू हो। अब लिख कर देने को भी तैयार हो गये। अब तो तुम अपना प्‍यार वापस लो तब तुम्‍हारा गिरेबान छोड़ूंगा”। 

“यार। प्‍यार है प्‍यार कैसे वापस ले सकता हूं शादी नहीं है जो तलाक दे दूं”। 

“मुझे कुछ नहीं पता, बस तुम अपना प्‍यार वापस लो”। 

नोट: इस कथा का किसानों और उनके आंदोलन से संबंध है या नहीं, इस पर हम चुप रहेंगे। 

कुशल कुमार